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जीवन कथाएँ >> अपने अपने नीड़

अपने अपने नीड़

सुरेश कुमार गोयल

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1588
आईएसबीएन :81-85826-10-2

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भारत की नई पीढ़ी की मानसिकता पर आधारित उपन्यास...

Apne Apne Need

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक समय ऐसी भी आता है जब आदमी इस नीड़ में शांतिपूर्वक बसना चाहता है। और तभी उसका भविष्य उसकी संतति उड़ जाती है,अपने अपने नए नीड़ बसाने के लिए तब नीड़ की नींव ही नहीं,आदमी की नींव भी हिल जाती है। कनाडा में बसे व्यवसाय से इंजीनियर श्री सुरेश कुमार गोयल ने इस उपन्यास के माध्यम से भारत की नई पीढ़ी की मानसिकता को साकार करने का सार्थक प्रयास किया है।

अपने अपने नीड़


बाबू कामताप्रसाद को हौज खास की उस बस्ती में कौन नहीं जानता था ! बच्चे, बूढ़े सभी उनको बाबूजी के ही नाम से पुकारते थे। उनकी सड़क पर आमने-सामने सब मिलाकर चालीस मकान तो होंगे ही। मकान क्या, कोठियाँ थीं। वह तो बाबूजी ने 1960 में जमीन कौड़ियों के दाम खरीदकर डाल दी थी और उस पर मकान बनवाया 1970 में। बीस साल से रह रहे थे अपने मकान में। उस बस्ती में तकरीबन सभी मकान 1970 के आसपास ही बने थे। कई सरकारी रिटायर्ड अफसर थे। उन लोगों ने भी शायद जमीनें काफी सस्ती ही खरीदी होंगी। सरकारी अफसरों को तो मालूम होता ही है कि सरकार किस क्षेत्र को आगे बढ़ाना चाहती है; अंदरूनी खबर का फायदा तो उठाया ही जा सकता है। परंतु कामताप्रसादजी के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ था। उनकी स्वर्गवासिनी पत्नी कमला की जिद थी कि अपना घर तो होना ही चाहिए। किराए के मकान में रहना भी कोई रहना है ! दिल्ली के मकान-मालिक किराएदारों के ऊपर धौंस तो जमाते हैं ही। एक किराएदार की हैसियत से दबना ही पड़ता है, खासतौर पर जब किराएदार शरीफ हो और मकान-मालिक तेज-तर्रार।
कामताप्रसादजी के साथ कुछ ऐसा ही होता था। बेचारे काफी शरीफ आदमी हैं। लड़ना तो उन्होंने कभी जाना ही नहीं। हमेशा सोच-समझकर ही बोलते हैं कि मुँह से कहीं कोई गलत बात न निकल जाए और सुननेवाले को बुरी लग जाए !

अपने विवाहित जीवन के दौरान उन्होंने कम-से-कम पाँच घर तो बदले ही होंगे। हर बार मकान-मालिक से ऐसी नोक-झोंक हुई कि मकान ही छोड़ना पड़ा था। किस्सा हर बार ऐसा होता था कि मकान-मालिक कामताप्रसादजी के ऊपर अनुचित दबाव डालने की कोशिश करता था। वे बेचारे कुछ झुक जाते थे, जिसके कारण कमला को क्रोध आ जाता था और वह मकान-मालिक से कामताप्रसादजी को हटाकर खुद ही हील-हुज्जत करने लगती थी। पत्नी के बीच में पड़ने से कामताप्रसादजी तो कुछ नहीं कहते थे पर मकान-मालिकों को ऐतराज होता था। दो आदमियों के बीच में औरत को पड़ने की क्या जरूरत है ? खैर, इस हील-हुज्जत का अंत घर छोड़ने के लिए मकान-मालिक के नोटिस के रूप में ही होता था।
कमला के जिद करने पर कामताप्रसादजी जमीन खरीदने को तैयार हो गए.। अपनी बीस साल की नौकरी में जो भी कुछ बचाया था उसको दाँव पर लगाकर जमीन खरीद ली। सौभाग्य से कमला के पिता ने दहेज में कमला के नाम दस हजार का ‘फिक्स्ड डिपॉजिट’ अच्छे ब्याज की दर पर दे दिया था। कुछ शेयर भी थे ‘देहली क्लॉथ मिल’ के। हर साल कमला के खाते में काफी अच्छी बढ़ोत्तरी होती जा रही थी। इसलिए कमला को मकान बनाने के समय पैसे की जरूरत की कोई चिंता भी नहीं थी। वैसे भी अगर मकान बनवाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती, तो कमला के पिताजी पीछे हटनेवालों में से नहीं थे। कमला उनकी अकेली बेटी थी। चार-चार भाइयों की बहन थी। सारे भाई भी अपनी बहन के ऊपर जान छिड़कते थे।

पता नहीं कामताप्रसाद और कमला के ऊपर भगवान् की कृपा थी या अभिशाप, उनको भी कन्या-रत्न की प्राप्ति कभी नहीं हुई। कामताप्रसाद अपने पिता को दो पुत्रों में बड़े थे। उनके छोटे भाई की कोई संतान नहीं थी। कमला के बड़े दो भाइयों के बस लड़के-ही-लड़के थे; बाकी छोटे दो भाइयों की शादी भी नहीं हुई थी। बड़ी मन्नतें माँगीं पर लड़की न हुई। एक-एक करके तीन पुत्र हो गए—रवि, नरेंद्र और राजीव। पास-पड़ोस के लोग हमेशा यही कहते थे कि तुम लोगों का दिमाग खराब है जो लड़कियों की कामना करते हो ? मजे से ऐश करो, कोई झंझट ही नहीं, किसी के घर पर रिश्ता लेकर नहीं जाना पड़ेगा। कमला की कुछ अंतरंग सहेलियाँ कहतीं, ‘‘बनती है ! एक के बाद एक लड़के हुए जा रहे हैं न ! इसलिए लड़कियाँ अच्छी लगती हैं ! जब किसी का दहेज तैयार करना पड़ता तब मालूम होता कि लड़की पैदा करके क्या भुगतना पड़ता है !’’
कमला पीहर में भी चार भाइयों के बीच पलने के कारण हमेशा ही अपने को अकेला महसूस करती रही। अपने घर में भी बेटे तो खेल-कूद में मस्त रहते थे। उसके पास बैठकर दो बातें करने की किस बेटे को फुरसत थी ! सोचती, ‘काश, इन तीनों में एक भी बेटी होती तो कितना अच्छा होता ! उसको खूब सजाती-सँवारती। नए-नए फ्रॉक सिलवाती। बालों में रंग-बिरंगे रिबन लगाती !’

कामताप्रसाद कमला को दिलासा देने के लिए यही कहा करते थे कि फिक्र क्यों करती है ? जब जवान होंगे तो घर में भगवान की दया से तीन-तीन बहुएँ आ जाएँगी। सारा घर बहुओं से ही भर जाएगा। बहुओं को ही बेटियों की तरह समझ लेंगे।

जब मकान बनवाने के लिए सरकारी नोटिस आ गया तो मकान बनवाने की सोची गई। नक्शा तो बहुत पहले ही बनवाकर पास करा लिया था। कमला का एक चचेरा भाई दिल्ली में ठेकेदारी करता था। उससे अच्छा कौन मिलता मकान बनवाने के लिए ! घर के ही आदमी पर अगर जिम्मेदारी हो तो कम-से-कम मकान में माल तो अच्छा लगेगा ! और इतनी अधिक निगरानी की भी आवश्यकता नहीं है। कामताप्रसादजी अपने काम से छुट्टी नहीं ले सकते थे और तीनों बेटे अभी छोटे ही थे, स्कूल जाते थे। मकान की नींव अप्रैल में रखी गई, ताकि बच्चों की गरमियों की छुट्टियों में कमला लगभग सारा दिन ही वहाँ रह सके। सवेरे-सवेरे बच्चों के लिए खाना तैयार करके लगभग उसी समय घर से निकल जाती थी जबकि कामताप्रसाद ऑफिस के लिए जाते थे। दो बसें बदलकर वह हौज खास पहुँचती थी। बस के अड्डे से उनकी जमीन लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर थी। मुश्किल तो बहुत होती थी आने-जाने में, पर इसके अलावा चारा भी क्या था ? घर बनवाना कोई आसान काम तो है नहीं। खासतौर से इतनी गरमी में।

वह तो भला हो पड़ोस की महिला का। वह तरस खाकर कमला को अपने घर बुला लेती थी। बिजली के पंखे की हवा से जान में जान आती। फ्रिज के ठंडे पानी से तो बस आत्मा को भी सुकून मिल जाता था। वह बेचारी महिला काफी शिकायत करती थी, ‘‘बहनजी, आप बिना बुलाए क्यों नहीं आतीं ? इतनी गरमी में बाहर ही खड़ी या पेड़ की छाया के नीचे तिलमिलाती रहती हैं। आप हमारी पड़ोसन होंगी। हम तो कलकत्ता से इतने दूर हैं। यहाँ पर आप ही लोग तो हमारे परिवार के लोगों की तरह होंगे।’’

कमला हमेशा ही आभार प्रकट करती और न आ सकने का कोई-न-कोई बहाना बनाती रहती थी।
सड़क-किनारे के नीम के पेड़ ने कमला की बहुत मदद की। वह उनकी घर की जमीन के ऐन सामने था। उसकी शीतल छाया ने उनको धूप और गरमी से बचाकर रखा। उन्होंने वहाँ पर घर से लाकर दो पुराने मूढ़े डाल रखे थे। शाम के समय घर आते वक्त वे उन मूढ़ों को बनते हुए घर के अंदर रख आती थीं। वैसे उन पुराने मूढ़ों को कौन चुराता ! उनको चोरी करके क्या किसी ने उनको सिर पर मारना था ? दिन में दो बार ठेकेदार, कमला का चचेरा भाई हरीश, मकान पर आता था—एक बार सवेरे नौ बजे और दूसरी बार शाम को तीन बजे के आसपास। सवेरे के समय तो कमला कभी मिल नहीं पाई हरीश से। हाँ, शाम को हरीश आते समय हमेशा ही अपने साथ रास्ते की हलवाई की दुकान से दो समोसे खरीदकर ले आता था। कमला अपने थर्मस की चाय दो छोटी प्यालियों में डालकर एक हरीश को पिला देती और दूसरी खुद एक समोसे के साथ ले लेती थी।

एक बार कमला सवेरे आठ बजे ही पहुँच गई थी मकान पर। उस दिन हरीश सवेरे नहीं आया था। दोपहर को ही आया था। कमला को तब से ही विश्वास हो गया था कि हरीश बेकार की गड़ंग मारता है कि दिन में दो बार मकान की देखभाल करने आता है। असल में वह आता है दिन में एक बार, वह भी इसलिए कि कमला हर रोज आती है। अगर वह हर रोज नहीं आए तो हरीश भी एक-आध बार आने की छुट्टी कर जाए। वैसे कमला को हरीश से कोई गिला नहीं था। साथ-ही-साथ उसके सब मजदूर भी कमला के साथ बहुत ही तहजीब और इज्जत से पेश आते थे। उनके लिए वह किसी ग्राहक का घर नहीं, बल्कि वे ठेकेदार साहब की बहन का घर बनवा रहे थे। खरे पैसे से खरा माल लग रहा था घर बनवाने में।

शाम को कामताप्रसाद ऑफिस से सीधे ही हौज खास पहुँचते थे। उनके ऑफिस से सीधी बस हौज खास पहुँचती थी। इन दिनों उन्होंने अपने ऑफिस में अपने लंच का समय काफी कम कर रखा था बड़े साहब से कहकर। अपनी मेज पर ही झटपट पराँठे खा लेते थे। और लोगों की तरह बाहर बाजार के चक्कर नहीं लगाते थे। इस कारण से ऑफिस के समय से आध घंटे पहले ही निकल आते थे। उस समय बस मिलना भी आसान था और दिल्ली के बस-यात्रियों की सबसे बड़ी नियामत बस में बैठने के लिए सीट भी मिल जाती थी। साढ़े पाँच बजे के आसपास ही वे मकान पर पहुँच पाते थे। लगभग आधा घंटे तक वे मकान का मुआयना करते, कमला के साथ विचार-विमर्श करते, फिर दोनों पति-पत्नी घर आ जाते। घर पहुँचते-पहुँचते साढ़े सात तो बज ही जाते थे। तीनों बच्चों का भूख के मारे बुरा हाल हो जाता था। उन दिनों घर में बिस्कुटों की खपत बेतहाशा हो रही थी। घर में आते ही कमला खाना बनाने में लग जाती और कामताप्रसादजी बच्चों के सारा दिन में होनेवाले झगड़ों को सुलझाने में लग जाते। खाना तैयार करने में आखिर कुछ समय लगता ही है। बच्चे तो खाना खाकर ही सो जाते थे, परंतु पति-पत्नी के जीवन में इन दिनों बनते हुए मकान के अलावा बातचीत का कोई विषय था ही नहीं।
शायद इन दिनों पति-पत्नी एक-दूसरे को ढंग से देखते भी नहीं थे। कामताप्रसादजी तो शायद सवेरे शेव करते समय अपने चेहरे को गौर से देखते ही होंगे, परंतु कमला के साथ ऐसा कुछ दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। कमला के पिताजी जुलाई के महीने में किसी काम से दिल्ली आए थे—केवल एक दिन के लिए ही, कंपनी की कार से। शाम को कमला के घर पहुँचे फलों की एक बड़ी टोकरी लिये हुए, साथ में मिठाई के दो-तीन पैकेट भी थे।

‘‘तूने अपना क्या हाल बना लिया है, कमला ? भूतनी लग रही है !’’
कमला खिसिया दी। उस समय कामताप्रसादजी बाजार से सब्जी लेने गए हुए थे, इसलिए कमला कुछ न बोली। पिताजी को चाय का एक प्याला देकर सीधे अपने शयन-कक्ष में जाकर ड्रेसिंग टेबिल के शीशे में अपना चेहरा गौर से देखा।
‘पिताजी ठीक ही कहते हैं। कितनी काली हो गई हूँ पिछले कुछ महीनों में धूप और गरमी के कारण ! खैर, एक बार मकान बन जाने पर फिर कुछ महीनों में पहले की तरह रंग साफ हो जाएगा।’ कमला ने सोचा, ‘अगर नहीं हुआ तो भी क्या चिंता है ! मेरे गोबर गणेश को तो शायद इसका कभी आभास भी नहीं होगा कि मेरा रंग कितना काला हो गया है।’
पिताजी ने कामताप्रसाद से कहकर हरीश को फोन करवा दिया कि आकर तुरंत मिले। हरीश आधा घंटे में ही हाजिर हो गया। आखिर ताऊजी का हुक्म ठहरा। कमला ने कभी हरीश भैया को पिताजी से बातचीत करते नहीं देखा था।

पिताजी का इतना रोब और मान तो उनके अपने बेटे भी नहीं करते थे। हरीश तो पहले से ही कमला का घर बड़ी ही ईमानदारी और लगन से बनवा रहा था। अब तो पिताजी के बीच में पड़ने के कारण अगर कोई मक्कारी करने की, अपनी ठेकेदारी की चाल दिखाने की गुंजायश थी भी, वह भी खत्म हो गई। काम तेजी से हो रहा था। समय से पहले ही मकान बनकर तैयार हो जाएगा, यह हरीश का आश्वासन था अपने ताऊजी को। पिताजी अच्छे समय पर आये कमला और कामताप्रसाद के लिए। जितनी जल्दी मकान बन जाए उतनी ही जल्दी उनका जीवन फिर से पहले की तरह हो जाएगा। अब तो सभी परेशान थे। बच्चों पर कुछ भी ध्यान नहीं दे पा रहे थे। उनके स्कूल भी शुरू हो गए थे। भगवान की कृपा से उनमें सबसे बड़ा रवि काफी होशियार था पढ़ाई में। हायर सैकंडरी के आखिरी साल में था। इसलिए मेहनत काफी कर रहा था। उसका ध्येय इंजीनियर बनने का था। अच्छे नंबर नहीं आए तो किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश भी नहीं मिलने का। इसी डर से वह हमेशा ही पढ़ाई में लगा रहता था। उसी की देखा-देखी मझला नरेंद्र और सबसे छोटा राजीव भी पढ़ते थे। राजीव अभी काफी छोटा था। पढ़ाई में उसका मन कम ही लगता था। नरेंद्र कुछ थोड़ा स्वार्थी था ; पढ़ाई में कुछ मुश्किल आने पर रवि से मदद लेने में जरा भी नहीं हिचकता था। परंतु जब राजीव उससे कुछ पूछता तो कभी बताकर नहीं देता था। अगर नरेंद्र को कोई चीज रवि से पूछनी होती थी तो रवि को अपना हर काम, कितना भी जरूरी क्यों न हो, छोड़कर नरेंद्र की सहायता करनी पड़ती थी।

कमला और कामताप्रसाद के तीनों बेटे कितने भिन्न स्वभाव के थे ! रवि शांत और आज्ञाकारी था। नरेंद्र बातूनी और कुछ-कुछ स्वार्थी। और राजीव सबसे छोटा, सबका लाडला बिना किसी अस्तित्व का। शायद अभी छोटा था इसलिए उसे ज्ञान नहीं था कि वह चाहे सबसे छोटा हो पर एक-न-एक दिन उसको भी आत्मनिर्भर बनना है। खैर, अभी काफी वक्त पड़ा था राजीव के व्यक्तित्व को पनपने में।
कमला और कामताप्रसाद को उन तीनों के लिए हौज खास में ही स्कूल ही व्यवस्था करनी थी। रवि अधिक खुश नहीं था कि उसको हायर सैकंडरी के आखिरी वर्ष में अपना स्कूल बदलना पड़ेगा। इस स्कूल में तो उसको सब अध्यापक जानते थे। नए स्कूल में परेशानी होगी ही। परंतु हौज खास से अपने स्कूल में आना कौन-सा आसान है हर रोज ! नरेंद्र की कोई खास राय नहीं थी स्कूल बदल जाने के विषय में। उसके लिए तो सारे स्कूल एक-से ही होते हैं। हाँ, राजीव अपने हिंदी के मास्टरजी से परेशान था। वे कभी-कभी बच्चों पर अपनी घर की परेशानियों के कारण बेंत से प्रहार कर देते थे। कम-से-कम हिंदी के मास्टरजी से तो छुटकारा मिलेगा। इस कारण राजीव तो खुश था। कामताप्रसाद ने दौड़-धूप करके इधर-उधर से जान-पहचान निकलवाकर तीनों बेटों के लिए एक स्कूल का इंतजाम करवा लिया। इस काम में हरीश ने भी उनकी मदद की।

घर अक्तूबर में तैयार हो गया। एक शुभ दिन देखकर गृह-प्रवेश का मुहूर्त भी निकलवा लिया गया। पूजा के पश्चात् दावत का आयोजन किया गया। मकान को बाननेवाले सब मजदूरों को भी बड़े चाव से बुलाया था कमला और कामताप्रसाद ने। उन बेचारों ने बड़े ही दिल से इतनी जल्दी मकान बनवा दिया। हरीश के परिवार के तो सब लोग थे ही। साथ में चाचाजी और चाचीजी भी कानपुर से आए थे। कमला के माता-पिता सपरिवार आए। अपनी बेटी के नए मकान को देखकर कमला के माता-पिता फूले नहीं समाए। मकान को बनवाने में पूरा डेढ़ लाख रुपया लगा था। मकान में सारा माल अच्छा लगा था। मकान बहुत ही मजबूत बना था। मकान को बनवाने में कमला और कामताप्रसाद को कमला के पिता से साठ हजार रुपया उधार लेना पड़ा था। कमला की माँ ने अकेले में कमला को समझा दिया कि इस उधार की चर्चा भूलकर भी अपने भाइयों से न करे, खासकर बड़े भाइयों से। वे तो एक बार इतनी बड़ी रकम उधार देने की बात बरदाश्त कर भी लें, परंतु दोनों भाभियों को यह बात तनिक भी न सुहाएगी। कमला के माता-पिता उससे कोई ब्याज तो लेने से रहे। बेटी अगर मूल भी जल्दी लौटा दे तो भगवान् का शुक्र है। आजकल की मँहगाई के जमाने में घर का खर्चा भी मुश्किल से चलता है, उसमें बचत कहाँ से होगी ! माना कि कमला और कामताप्रसाद की बेटी की शादी का दहेज नहीं जुटाना है, परंतु तीन-तीन बेटों को अच्छी तरह पढ़ाकर अपने पाँवों पर खड़े होने योग्य बनाना भी कोई कम खर्च का काम नहीं। और फिर उन तीनों की शादी में भी तो खर्चा करना ही पड़ेगा। आजकल के जमाने में अगर बेटी की शादी में माता-पिता का दीवाला निकल जाता है तो बेटे के विवाह में भी माता–पिता हिल जाते हैं। अगर कोई तेज-तर्रार पुत्रवधु आ गई तो दहेज में लाई सूई भी अपने घर ले जाएगी। और अगर ससुराल में सास-ससुर के साथ रही तो हर चीज अपने कमरे में रखेगी, मजाल है कि कोई और उसके पीहर से आई हुई चीजों को छू भी ले !

कमला और कामताप्रसाद के घर का नक्शा कुछ अजीबोगरीब ही था। हर देखनेवाला कहता कि इस तरह का घर क्यों बनवाया ? इस बड़े घर का कोई भी हिस्सा किराए पर नहीं उठाया जा सकता। घर दो मंजिला था। नीचे की मंजिल में तीन बड़े कमरे थे और ऊपर की मंजिल में दो बड़े कमरे थे। नीचे बड़ा आँगन था और ऊपर काफी बड़ी खुली छत थी। नीचे के बीच के बड़े कमरे को ड्राइंगरूम बनाया गया। एक बड़ा कमरा कमला और कामताप्रसाद का शयन-कक्ष बन गया। वह कमरा रसोई घर के पास था। तीसरे बड़े कमरे को उन्होंने नरेंद्र और राजीव को दे दिया। ऊपर के एक बड़े कमरे को रवि का कामरा बना दिया। उसको अपनी पढ़ाई के लिए एकांत चाहिए था। नीचे तो उसे नरेंद्र और राजीव ही परेशान किए रहते थे। अब तो वे तब ही ऊपर जाते थे जबकि उनको वाकई रवि से पढ़ाई की खास बात पूछनी होती थी। हाँ, दिन में कई बार कमला के चक्कर रवि के कमरे में लगते रहते थे। ऊपरी मंजिल के दूसरे बड़े कमरे को खाली रखा हुआ था। उसमें घर का कुछ गैरजरूरी सामान रखा गया था। कमला और कामताप्रसाद यही सोचते कि इस बार गरमियों में ऊपर छत पर खुले आसमान के तले सोने में मजा ही आ जाएगा। बचपन में कभी छत पर सोने को मिलता था, परंतु जब से दिल्ली में रहने लगे थे इस सुख से हमेशा ही वंचित रहे।

कमला और कामताप्रसाद के घर में बाथरूम तो पाँच थे, परंतु रसोई घर एक ही था। हर बड़े कमरे में, ड्राइंगरूम को छोड़कर, पूरा बाथरूम था और एक बाहर था निचली मंजिल पर। परंतु रसोई घर एक होने का कारण था कमला की जिद। कमला का कहना था कि उसके जीते-जी इस घर में दो जगह रसोई नहीं हो सकती। सब एक ही रसोईघर में बनाकर खाएँगे। उनके बाद अगर भाइयों में इतना मेल नहीं हो कि एक-साथ प्यार से रह सकें तो साथ रहने का ढोंग करना ही बेकार है। ऐसी सूरत में मकान को बेचकर, अपना-अपना हिस्सा लेकर अलग-अलग रहें—यही उनकी राय थी। अपने घर को किराए पर देने का इरादा तनिक भी नहीं था। कामताप्रसाद की तो नस-नस से वाकिफ थी कमला। अगर को तेज-तर्रार किराएदार मिल गया तो उससे भी दब जाएँगे। जीवन-भर तो मकान-मालिकों से दबती रही, अब किराएदारों से दबने की हिम्मत नहीं थी।

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